शकुन और अपशकुन भारतीय लोक जीवनके साथ इस प्रकार अभिन्न हो गए हैं की आधुनिक युग की घोर बौद्धिकता भी उनके अस्तित्व के संकट नहीं बन पाई है| सूर ने अपने काव्य में यत्र—तत्र लोकविश्वास पर आधारित शकुनो और अपशकुनों की ओर संकेत दिया है| किसी के आगमन की संभावना की प्रमाणिकता आँगन में बैठे काग को उड़ाकर आंकने की लोकपरम्परा आज भी मृत नहीं है| गोपियाँ कृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा में काग को उडाती हैं, किन्तु वह उड़ता नहीं है—
जहँ—तहँ काग उड़ावन लागीं, हरि आवत उड़ि जाहि नहीं|

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इसी प्रकार एक गोपी दूसरी गोपी के आँगन में कौए का बोलना सुनती है और उसे विश्वास दिलाती है—
तेरे आवेंगे आजु सखी, हरि खेलन कों फागु री|
सगुन संदेसौ हौं, सुन्यो तेरे आँगन बोलै कागु री||

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यदि ‘काग’ प्रियतम की आगमन की प्रमाणिकता का बोध करा देता है तो विरहिणी प्रियतम के आने के बाद उस संदेशवाहक काग को विविध प्रकार से पुरस्कृत करने का वचन देती है—
जो गुपाल गोकुल कौं आवे है हैं बड़भाग|
दधि ओदन भरि दोनों देहों अरु अंचल की पाग||
नारियोंकी वाम भुजाका फड़कना भी शकुन माना जाता है| एक सखी दूसरीसे कहती है कि जब तेरी बाँयी बाँह फड़क रही है तो तू क्यों नहीं कृष्णके पास चली जाती—
बात न धरति कान, तानती है भौह बान|
तउ न चलति बाम अंखियाँ फरक रही||

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भ्रमरका गुनगुनाना भी शुभ शकुन माना जाता है| यदि भ्रमर किसी रमणीके कानके पास गुनगुनाता है तो यह इस बातका सूचक है कि कोई मनोवांछित सूचना मिलने वाली है—
आजु को नीकी बात सुनावै|
भौंर एक चहुँ दिसि तैं उड़ि काननि लगि—लगि गावै|
सूरकाव्यमें अनेक अपशकुन भी वर्णित हैं| छींक लोकजीवनमें अपशकुन मानी जाती है| दावानल—पानके प्रसंगमें ज्यों—ही यशोदा भोजन करने रसोईघरमें आती हैं, त्यों—ही छींक होती है| इसी प्रकार जब कृष्ण यमुनामें कूद जाते हैं, तब यशोदा अनेक अपशकुनोंसे साक्षात्कार करती हैं—
जसुमति चली रसोई भीतर, तबहिं ग्वालि इक छींकी|
ठठकि रही द्वारे पर ठाड़ी, बात नहीं कुछ नीकी||
आई अजिर निकसी नंदरानी, बहुरि दोष मिटाइ|
मंजारी आगे है आई, पुनि फिरि आँगन आइ|
बायें काग, दाहिनें खर स्वर, व्याकुल घर फिर आई||
नन्द भी इसी प्रकारके अनेक अपशकुन देखते हैं| कभी कुत्ता कान फड़फड़ाता है, कभी माथेपर होकर काग उड़ जाता है
बैठत पौरि छींक भई बायें, दाहिनें धाय सुनावत|
फटकत स्त्रवन स्वान द्वारे पर, गारी करति लराई|
माथे पर है काग उड़ान्यौ, कुसगन बहुतक पाड़|
लोकविश्वासोंपर आधारित शकुन और अपशकुनोंका काव्यमें चित्रण एक ओर सूरकी अनुभूतिकी प्रामाणिकताका सूचक है तो दूसरी ओर इससे यह भी ध्वनित होता है कि सूरका काव्य समाज—निरपेक्ष नहीं था| लोकजीवनकी अनेक परम्पराओं, विश्वासों और मान्यताओंका सूरने अपने काव्यमें विस्तृत वर्णन किया है| शकुन और अपशकुनसम्बन्धी उपर्युक्त विवेचन इसी विस्तृत वर्णनकी एक झाँकीमात्र है| [लोकशास्त्र]