ज्योतिष और  शकुन-शास्त्र

‘जोंक- यह जलकृमि बैरोमीटरका अच्छा काम देता है। शीशेके बड़े पात्रमें जल भरकर इसे पाला जा सकता है। वर्षा होनेवाली होगी तो यह जलके तलभागमें जा बैठेगा, आँधी आनेवाली हो तो यह बेचैनीसे तैरता है। यह जलके ऊपर मजेमें तैरता हो तो समझना चाहिये कि ऋतु शान्त रहेगी।’ यह तो पाश्चात्य जन्तु शास्त्रज्ञोंने नवीन खोज की है। इस शकुनको वे विज्ञान कहते हैं। इसी प्रकार वे भड्डरीके शकुनोंको भी अधिकांश सत्य मानने लगे हैं। जैसे—

अंडा ले चिउँटी चलें, चिड़ी नहावै धूर
ऊँचे चील उड़ान लें, तब वर्षा भरपूर ॥

तीनोंमेंसे एक ही लक्षण हो, तब भी बूँदा – बाँदी हो जाती है; किंतु तीनों हों तो भरपूर वर्षामें कोई सन्देह ही नहीं रहता। वैज्ञानिक कहते हैं कि पशु-पक्षी तथा पौधे ऋतुके प्रभावको पहलेसे ही अनुभव करने लगते हैं। जैसे वर्षा होनेसे कुछ घण्टे पूर्व ही मकड़ी अपने जालेके केन्द्रमें जा बैठती है। अतएव पशु-पक्षियों तथा पौधोंके द्वारा ऋतुका अग्रिम अनुमान किया जा सकता है। अकाल पड़नेवाला हो तो कई महीने पूर्व कुछ विशेष प्रकारके तृण निकल आते हैं। कुछ पौधोंमें विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है।

वर्षा कितनी होगी ज्योतिष में वर्षा निर्धारण:https://askkpastro.com/%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%ac-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%97%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a4%a8%e0%a5%80/

यह भी स्वीकार किया जाने लगा है कि भड्डरीको या उसने जहाँसे अपनी सूक्तियोंका आधार लिया हो, ऋतुका सूक्ष्म लाक्षणिक ज्ञान था। आजकलकी ऋतुमापक वेधशालाएँ बहुत पहलेसे आँधी, वर्षा, बादल आदिकी सूचना प्राप्त कर लेती हैं। इसी आधारपर लोग कहने लगे हैं कि पुरानी सूक्तियाँ भी ऐसे ही सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षणका परिणाम हैं

श्रावण शुक्ला सप्तमी, उदित न देखिय भानु ।
तब लगि देव बर्षिहहिं, जब लगि देव उठान ||

इस प्रकारकी सहस्त्रों सूक्तियाँ ग्रामों में प्रचलित हैं। उनका बहुत बड़ा भाग सत्य परिणाम व्यक्त करनेवाला है। कोई नहीं जानता कि वे किस प्रकार प्रचलित हुईं। यदि भारतीय वाङ्मयके लक्ष-लक्ष ग्रन्थ नष्ट न कर दिये गये होते तो उनका मूल कदाचित् मिल जाता। जो हो, इन बची-खुची लक्षण- सूक्तियोंकी रक्षा आवश्यक है। वर्तमान वैज्ञानिक यन्त्र अभी इतने सूक्ष्म लक्षण निश्चित करनेमें असमर्थ ही हैं।

शनि भगवान् की कथायें:https://askkpastro.com/%e0%a4%b6%e0%a4%a8%e0%a4%bf-%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b5-%e0%a4%b6%e0%a4%a8%e0%a4%bf-%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b5-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%a5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a5%87%e0%a4%82/

लक्षण-ज्ञान सूक्ति-ज्ञानसे भी सूक्ष्म होता है। जैसे अमुक महीनेमें पाँच शनि या पाँच मंगल पड़े हैं इस लक्षणके अनुसार इसका कोई विशेष फल होगा ऐसा ज्योतिषशास्त्र निर्देश करता है। स्पष्ट है कि प्रत्येक दिन अपने ग्रहके प्रभावसे सम्बन्ध रखता है। यदि चन्द्रमाके एक पूरे चक्करमें कोई दिन चारसे अधिक बार आता है तो इसका अर्थ है कि चन्द्रमापर इस बार उस ग्रहका प्रभाव अधिक पड़ा है। उस प्रभावका पृथ्वीपर कब या क्या परिणाम होगा – यह फलित ज्योतिष व्यक्त करता है।

शकुन शास्त्र दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- है- एक तो ग्रह, नक्षत्र, राशि दिन आदिपर निर्भर फलित ज्योतिषसे सम्बन्ध रखनेवाला शकुन-शास्त्र और दूसरा दृश्य पदार्थोंके द्वारा परिणामको प्रकट करनेवाला शकुन-शास्त्र । वैसे दोनोंको सर्वथा पृथक् रखना शक्य नहीं है; क्योंकि दृश्य शकुनोंमें भी काल (दिनादि), स्थान, नक्षत्र आदिका अनेक बार विचार होता है और उससे विभिन्न परिणाम निश्चित होते हैं। इसी प्रकार फलितमें भी बाह्य चिह्नोंकी अपेक्षा होती है, परंतु एक सीमातक शकुन और ज्योतिषका पार्थक्य सम्भव है तथा यहाँ शकुनका भी विचार अभीष्ट है।

शकुन कई प्रकारके माने गये हैं। पशु एवं पक्षियोंके शब्द तथा उनकी चेष्टाएँ, स्वप्न, अपने अंगोंका फड़कना या शरीरके विभिन्न स्थानों में खुजली होना, आकाशसे विभिन्न प्रकारकी वर्षा या ग्रहों की आकृतियोंमें दृश्य-परिवर्तन, वनस्पतियों तथा तृणोंमें विशेष परिवर्तन, प्रतिमा, पाषाण तथा जलमें विशेष लक्षण दर्शित होना, यात्रादिमें मिलनेवाले पदार्थ, छींक ये शकुनोंके मुख्य भेद हैं।

वैज्ञानिक वेधशालाएँ अभी प्रकृतिके सूक्ष्म प्रभावका बहुत अल्प विवरण जान सकी हैं। नील नदीमें बाढ़ आने या अबीसीनियामें वर्षा होनेका भारतकी वर्षापर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह बतलाना बहुत सूक्ष्म विज्ञान नहीं है। मानी हुई बात है कि अरबसागरकी वाष्प यदि अफ्रीका में वृष्टि बन गयी तो सागरके दूसरे तटके देश भारतमें वर्षा उधरकी वायुसे कम होगी। शकुन-शास्त्रके ज्ञानके लिये प्रकृति एवं पशुओंकी प्रभाव – ग्रहण-शक्ति एवं उसे सूचित करनेका प्रकार बहुत ही सूक्ष्मतासे जानना पड़ेगा। इस ज्ञानका निरन्तर ह्रास होता जा रहा है।

पशु-पक्षियों का शकुन शास्त्र

शकुन शास्त्र के अनुसार  प्लेग पड़नेवाला हो तो चूहे पहले मरने लगते हैं— यह तो आजका शकुन है; किंतु इससे भी सूक्ष्म शकुन यह है कि कुत्ते प्रातः काल सूर्यकी ओर मुख करके रोने लगें तो कोई अमंगल होनेवाला है। गधे ग्राममें दौड़ने और चिल्लाने लगें, रात्रिमें बिल्लियाँ या शृगाल अकारण रोते हों तो ये भी अमंगल सूचित करते हैं। अकारण बिल्ली, कुत्ता या शृगालके रोनेपर समीप ही किसीकी मृत्युकी सूचना मानी जाती है। घरके पशु – गाय, घोड़े या हाथी अकारण अश्रु बहायें या चिल्लायें तो भी अमंगल सूचित होता है।

ऊपरसे छिपकली शरीरपर गिर पड़े या गिरगिट दौड़कर शरीरपर चढ़ जाय तो किस अंगपर उसके चढ़नेका क्या परिणाम होता है, यह शकुन-शास्त्रसे सम्बन्धित ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक वर्णित है। इसी प्रकार शरद् ऋतुके प्रारम्भ में सूर्यके हस्त नक्षत्रपर अधिष्ठित होनेपर खंजन पक्षीके दर्शनका फल भी दिशाभेदसे वर्णन किया गया है। कौए के शब्दके अनुसार भविष्य-ज्ञानका वर्णन अत्यन्त विस्तृतरूपसे ग्रन्थोंमें वर्णित है। ऐसे ही अनेक पशु-पक्षियों, सर्पादिकों और कीड़ोंकी चेष्टाओंके अनुसार परिणाम जाननेकी प्रथा है। यात्राके समय मार्गमें कौन-सा पशु या पक्षी किस दिशामें कैसे मिले तो क्या परिणाम होगा- यह शकुन शास्त्र को जाननेवाले लोग शास्त्रों में प्राप्त कर लेते हैं। जैसे-यात्रामें मृगयूथका दाहिने आना, नेवले और लोमड़ीका दिखायी देना, वृषभ, बछड़ेसहित गौ, ब्रह्मचारी, हरे फल आदिका दृष्टिगोचर होना- ये सब शकुन शुभसूचक हैं। यात्रामें बिल्ली मार्ग काटकर सामनेसे चली जाय या शृगाल बायेंसे दाहिने मार्ग काटकर निकल जाय तो लौट आना चाहिये। ये शकुन यात्रामें आपत्तिकी आशंका सूचित करते हैं।

अन्धविश्वास कहकर किसी तथ्यको उड़ा देना एक बात है और उसमें सन्निहित सत्यका अन्वेषण दूसरी बात । ग्रामके लोग जानते हैं कि जब ग्राममें महामारी आनेवाली होती है, तब गौरैया पक्षी पहलेसे ही ग्रामको छोड़ देती है। इसी प्रकार दूसरे पशु-पक्षियोंको भी आपत्तिका पूर्वज्ञान हो जाता है। आपत्तिको सूचित करनेवाली उनकी चेष्टाएँ भिन्न-भिन्न प्रकारकी हैं, परंतु पशु-स्वभाव है कि उन्हें प्रसन्नता या आपत्तिकी जो पूर्व सूचना अनुभव होती है, उसे वे प्रकट कर देते हैं। जंगलमें बाघ चलता है तो उसके साथ-साथ एक विशेष प्रकारके पक्षी चिल्लाते चलते हैं। 

शकुन शास्त्र के अनुसार बिल्ली या व्याधको देखकर पक्षी तथा गिलहरियाँ चिल्लाकर दूसरोंको सावधान करती हैं। यह सब दूसरेको सूचित करनेके लिये उनका प्रयत्न नहीं है; अपितु ऐसा उनका स्वभाव है। उनकी ऐसी चेष्टा क्यों हुई है, यह क्या सूचित करती है— यह जानना ही शकुन-ज्ञान है। है

पशु-पक्षियोंको यह सूक्ष्म-ज्ञान कैसे होता है ? इस प्रश्नका उत्तर यही है कि उनका मन प्रकृतिसे सहज प्रेरणा प्राप्त करनेका अभ्यासी होता है। मनुष्योंमें भी जो मनको अपने विचारोंके प्रभावसे शून्य कर पाते हैं, वे प्रकृतिकी प्रेरणा ग्रहण करने लगते हैं। वे भविष्यका अनुमान करने में बहुत सफल होते हैं। विज्ञानके एक मध्यमकोटिके विद्वान्‌की अपेक्षा एक अपढ़ मल्लाह बिना किसी यन्त्र के नदीके जलकी गहराई और आँधीका अनुमान ठीक-ठीक कर लेता है। देखा है कि व्याध चाहे अच्छे वेशमें अपने आखेटके साधनोंको छोड़कर दूसरे ही काम से कहीं जाता हो, पर पक्षी उसे देखते ही रोष प्रकट करने लगते हैं। जो लोग पशु-पक्षियोंको कष्ट नहीं देते, उनके पास पहुँचनेतक अपरिचित पक्षी भी निश्चिन्त बैठे रहते हैं। जैसे पशु-पक्षी व्याध एवं सज्जनकी मानसिक स्थितिका प्रभाव ग्रहण कर लेते हैं, वैसे ही दूसरे प्रभावको भी जान लेते हैं।

आयु निर्णय ज्योतिष:https://askkpastro.com/%e0%a4%86%e0%a4%af%e0%a5%81-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a3%e0%a4%af-%e0%a4%9c%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b7/

ज्योतिष और शकुन शास्त्र –

दोनों इस सिद्धान्तपर स्थित हैं कि विश्वमें जो कुछ होता है, वह पूर्वसे ही निश्चित है। नवीन और अकस्मात् कुछ नहीं होता। ईश्वरीय सर्वज्ञतामें भूत भविष्य दोनों काल वर्तमान ही रहते हैं। घटनाएँ तनिक भी इधर-उधर नहीं हो सकतीं। आप एक ज्योतिषीसे कुछ प्रश्न करते हैं। वह आपसे एक पुष्पका नाम पूछता है और फिर आपके प्रश्नोंका उत्तर दे देता है। बात इतनी ही है कि आपने पुष्पका जो नाम बताया, उसने आपकी मानसिक स्थिति बतला दी। ज्योतिषी जानता है कि उस समय आप दूसरे पुष्पका नाम बता ही नहीं सकते थे। जब आपके जीवनकी एक कड़ी मिल गयी तो फिर पूरा जीवन खुली पुस्तक हो गया। एक वस्त्रमेंसे एक सूत मिल गया तो पूरे वस्त्रकी रचनातक पहुँच जाना कठिन नहीं; क्योंकि रचनाक्रम तो निश्चित है। ज्योतिषशास्त्र में इसी सिद्धान्तके आधारपर प्रश्न कुण्डली बनती है।

शकुनों में हमें असम्भावना इसलिये प्रतीत होती है कि हम परिणामोंको निश्चित नहीं मानते। फ्रांसके किसी वैज्ञानिकने एक समुद्रीय पौधेको बाहर स्थलपर लगाया और उसपर पड़नेवाले सूक्ष्म प्रभावका गणित करता गया। सूर्य तापका क्रम तथा देशोंकी स्थिति आदिका हिसाब करके उसने दो सौ वर्षतकके लिये आँधी, तूफान, वर्षाक सम्बन्धमें भविष्यवाणियाँ कीं। वर्तमान समयके यन्त्र भी दो-चार दिन पूर्वके सम्बन्ध में सूचना देते हैं। यह अन्वेषण सिद्धान्त सिद्ध करता है कि वर्षोंके लिये भी भविष्यवाणियाँ करनी शक्य हैं, परंतु भय रहता है कि गणित या निरीक्षणमें थोड़ी भी भूल होनेपर वे भ्रमपूर्ण हो जायँगी। इस प्रकार जिन घटनाओंका कार्य-कारण सम्बन्ध हम जान चुके हैं, उनको बहुत पहलेसे जानना शक्य मानते हैं; क्योंकि यह नियम है कि प्रकृतिमें अकस्मात् कुछ नहीं होता कारणका क्रमशः विकास होता है। यदि हम समझ लें कि वर्षा, आँधी आदिके समान शरीर और मन भी जड़ है और उसकी क्रियाएँ भी निश्चित एवं स्थिर हैं तो हमें उसके कार्य कारण सम्बन्ध ज्ञानसे भी आश्चर्य न होगा।

हिन्दू शास्त्र जड़ को भ्रम मानते हैं। जैसे हमारा शरीर हमारे लिये जड़ है, पर वह है चेतन कीटाणुओंका पुंज, वैसे ही पृथ्वी, वायु आदिके भी अधिदेवता हैं। समस्त दृश्य जगत् उसी प्रकार भाव (दिव्य) जगत्से संचालित है, जैसे हमारा शरीर हमारी चेतनासे। हमारे शरीरमें सब चेतन कीटाणु हैं, परंतु उनकी क्रिया नियन्त्रित है। उनमें विकार कब या क्यों आता है, यह चिकित्साशास्त्र बतलाता है। शरीरमें कुछ भी अनिश्चित नहीं; इसी प्रकार ब्रह्माण्डमें भी कुछ अनिश्चित नहीं है। जैसे कीटाणुओंकी चेतनासे शरीरमें अनियमितता नहीं आती, वैसे ही प्राणियोंकी चेतनता विश्वमें अनियमितता नहीं ला सकती, सबकी क्रिया निश्चित है। विकार भी पूर्व निश्चित है।

जो जड़वादी हैं, उन्हें सोचना चाहिये कि जब चेतना भी जड़का ही विकार है तो जैसे जलके या लकड़ीके सड़नेका क्रम परिस्थितिसे पूर्व निश्चित है, उसमें कब और कैसे कीड़े पड़ेंगे- यह निश्चित है, वैसे ही चेतनकी चेष्टाएँ भी निश्चित ही होंगी। चेतनाको जड़का भाग मान लेनेपर मन और शरीरकी क्रिया भी इंजनकी क्रिया-सी जड़ हो जाती है। जड़वादी मानते भी हैं कि स्वभाव, बुद्धि, विचारादि परिस्थितिके प्रभावोंसे निर्मित होते हैं। जब परिस्थितियोंका गणित सम्भव है तो उसके प्रभावोंका असम्भव क्यों हो जायगा? घटनाएँ तो व्यक्ति अपनी चेतनासे प्रेरित होकर ही करेगा और करेगा मानसिक एवं बाह्य परिस्थितिसे बाध्य अथवा प्रेरित होकर। अतः घटनाओंका पूर्व निश्चय भी परिस्थितिसे हो सकता है। जड़वादीके लिये तो सब घटनाएँ पूर्व निश्चित हैं, ऐसा माननेमें कोई आपत्ति होनी ही नहीं चाहिये; क्योंकि जड़की क्रिया तो कभी अनिश्चित होती ही नहीं।

विश्वको मूलतः चेतनात्मक माना जाय या जड़ ? यह मानना ही पड़ेगा कि हमारी समस्त मानसिक एवं शारीरिक क्रियाएँ पूर्वनिश्चित हैं। जो क्रिया पूर्वनिश्चित है, वह अकस्मात् नहीं होती। अकस्मात् होने जैसी प्रकृतिमें कोई बात है ही नहीं। उसके सूक्ष्म कारण बहुत पहलेसे प्रकट हो जाते हैं। हमें तो बादल एकाएक आये हुए लगते हैं, किंतु आजके वैज्ञानिक दो-तीन दिन पूर्व जान लेते हैं कि ये कब आयेंगे। इसी प्रकार बहुत से पेड़-पौधे भी उस प्रभावको व्यक्त करने लगते हैं। जैसे वर्षा पहले सूक्ष्म प्रभावसे जानी जाती है, वैसे ही पशु पक्षी दूसरी घटनाओंका प्रभाव भी अनुभव करने लगते हैं और उसे व्यक्त करते हैं।

अनेक बार हम अनुभव करते हैं कि हमारा मन अकारण खिन्न हो गया है। पीछे कोई दुःखद संवाद आता है। अनेक बार हम अनुभव करते हैं कि अमुक कार्य प्रारम्भ करनेमें मनकी कोई शक्ति रोक रही है। कई बार हम किसी प्रियजनको यात्रामें जानेसे रोकते हैं। उस अन्तः प्रेरणाका अनादर करनेपर पीछे हानि उठाकर पश्चात्ताप करना पड़ता है। ऐसा क्यों होता है। घटनाएँ तो सब पूर्वनिश्चित हैं। जैसे हम वनमें हों और दूरसे दावाग्नि लगनेके लक्षणोंका अनुभव करके भयभीत हो जायँ, ऐसे ही दुर्घटनाका प्रभाव भी हमारी अन्तश्चेतनापर पड़ता है। उस प्रभावका स्पष्टीकरण न होनेपर भी आशंका होती । इसी प्रकार मनमें शुभकी सूचना हर्षके रूपमें व्यक्त होती है।

हमारे मनमें बाह्य संसारकी इतनी प्रगाढ़ आसक्ति है कि हमारा मानसिक जीवन भी बाह्य जीवनकी भाँति नितान्त कृत्रिम हो गया है। फलतः हम प्रकृतिके सूक्ष्म प्रभावोंका अनुभव नहीं कर पाते। पशु-पक्षियोंको इन प्रभावोंकी विशेष अनुभूति होती है। कुछ विशेष प्रकारके पशु या पक्षी ही विशेष-विशेष प्रभावका अनुभव करते हैं। उन प्रभावोंके अनुसार उनकी चेष्टाएँ होती हैं। उन चेष्टाओंसे क्या प्रकट होता है, यह जानना ही शकुनज्ञान है।

वृक्षोंकी भाँति लताओं एवं तृणोंके भी फूलने फलने, अनुपयुक्त स्थानपर उगने आदिके शकुन होते हैं। इनके अतिरिक्त यात्रादि कार्योंमें पशु-पक्षियोंकी भाँति विशेष प्रकारके पुष्पों, वृक्षों, तृणों, काष्ठ आदिके मिलनेके परिणाम भी बताये जाते हैं। ये परिणाम इन दृश्योंसे उसी प्रकार सम्बन्धित हैं, जैसे पशुओंके सम्बन्ध में बताया जा चुका है।

अनेक बार वृक्षों या तृणोंमें ऐसे अद्भुत परिवर्तन दिखायी पड़ते हैं, जो स्वाभाविक नहीं हैं, जैसे जिस जातिके मोटे बाँसमें फल लगता ही नहीं, उसमें फल लगना अनिष्टका सूचक है। ऐसे अद्भुत लक्षणोंकी ओर मनुष्यका ध्यान जाना सहज है। इनकी उपेक्षा तो की नहीं जा सकती और शकुन शास्त्रको जो नहीं मानते, वे इनका कोई भी प्राकृतिक कारण अबतक बता नहीं सके हैं।

गौ माता का ज्योतिष वास्तु शकुन शास्त्र में महत्तव:https://askkpastro.com/%e0%a4%97%e0%a5%8c-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%9c%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b7-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a5%81/

अद्भुत शकुन

मूर्तियोंसे पसीनेकी धारा बहने, मूर्तियोंके हँसने या स्वयं एक स्थानसे उठकर दूसरे स्थानपर चले जानेकी घटनाएँ आज भी कभी-कभी समाचार पत्रोंमें आ जाती हैं। इसी प्रकार आकाशसे रक्त, धूलि, चन्दन आदिकी वर्षाके समाचार भी द्वितीय (सन् १९३९ – ४५ ई० के) महायुद्धसे पूर्व आये थे। रक्तवृष्टि तो अनेक स्थानों पर हुई और कहीं-कहीं व्यापकक्षेत्रमें हुई। सरकारी कर्मचारियोंने देखभाल भी की तथा वहाँकी मिट्टी परीक्षणके लिये भेजी गयी। वैज्ञानिक यह नहीं बतला सके कि रक्त किस प्राणीका है, किंतु वह है रक्त ही, यह उन्होंने स्वीकार किया। इसी प्रकार एक स्त्रीके गर्भसे अंडे उत्पन्न होने तथा एक स्त्रीके ऐसा बच्चा उत्पन्न होनेका समाचार आया था, जिस बच्चेको गर्भसे ही जीवित सर्प लिपटा हुआ था बच्चा और सर्प- दोनों पर्याप्त समयतक जीवित रहे।

मूर्तियों में आराधकके भावसे जो लक्षण प्रकट होते हैं, यहाँ उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। भाव तो दृढ़ होनेपर सम्पूर्ण विश्वको प्रभावित कर सकता है; क्योंकि दृश्य संसार भावलोकद्वारा ही संचालित है। इसी प्रकार आसुरी माया या मनके संकल्पसे जो रक्तवर्षणादि होते हैं, वे भी सिद्धिके अन्तर्गत हैं। यहाँ तो उन घटनाओंसे तात्पर्य है, जो बिना किसी प्रत्यक्ष कारणके स्वतः होती हैं। ऊपर जैसी घटनाओंका उल्लेख है, उनके अतिरिक्त इसी कोटिके बहुत से लक्षण ज्योतिष ग्रन्थों में वर्णित हैं। ये सब लक्षण उत्पातके सूचक हैं। मूर्तियोंमें, जड़ पदार्थों में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं, आकाशसे किन-किन पदार्थोंकी वृष्टि होती है, नारी-गर्भसे कैसी-कैसी अद्भुत आकृतियाँ उत्पन्न होती हैं, इनका वर्णन परिणाम ग्रन्थों में ही देखना चाहिये।

इसी प्रकारकी अद्भुत घटनाओंमें अकारण भूकम्प, उल्कापात, धूमकेतुका उदय होना, गुफाओंमें आँधी न चलनेपर भी शब्द होना, बिना आँधी और धूलिके दिशाओं तथा आकाशका मलिन हो जाना, अमावस्या और पूर्णिमाके बिना ही ग्रहण लगना आदि है। इन घटनाओंका भी ज्योतिषशास्त्र में विस्तृत एवं सपरिणाम उल्लेख है।

हमने पहले बताया है कि जड़वादियोंके लिये भी पशु-पक्षी आदिसे ज्ञात शकुन मान्य होने चाहिये, परंतु जड़वादको मानकर इन अद्भुत शकुनोंका कारण पाया नहीं जा सकता। पाषाणमें या धातु, काष्ठादिकी मूर्तियों में हास्य, रोदन, गति, स्वेद तथा आकाशसे रक्त, चन्दन आदिकी वृष्टिका कारण जड़वादसे पाना शक्य नहीं। जैसे किसी भावुक भक्तने भगवान्‌को मानसिक पूजनके समय कोई नैवेद्य अर्पित करना प्रारम्भ किया और उसे किसीने उसी समय चौंका दिया तो नैवेद्य बाहर गिर पड़ा। अब वह नैवेद्य कहाँसे आया, इसे वैज्ञानिक नहीं बता सकेगा। इसी प्रकार ये घटनाएँ भावलोकसे सम्बन्ध रखती हैं।

जो सम्बन्ध हमारे शरीर और शरीरकी चेतनामें है, वही सम्बन्ध पदार्थों एवं उनके अधिष्ठाता देवताओंमें है। पदार्थका स्थूलरूप देवताओंका व्यक्त पदार्थभाव ही है, जैसे बाजीगरका भाव कुछ क्षणके लिये कोई प्रकट कर देता है। जैसे भय, आशंका, आश्चर्य आदिसे हमारे शरीरमें स्वेद, रोमांच, अश्रु, हास्य प्रकट होते हैं, वैसे ही देवताओंमें भी। शोक या क्रोधकी अधिकतामें हमारे रोमकूपोंसे रक्तकण निकल सकते हैं और रक्त-वमन भी हो सकता है। मूर्तियोंमें भक्तोंकी भावना तथा प्राण प्रतिष्ठाके कारण देवशक्तिका सान्निध्य स्थापित होता है। विश्वमें कोई बड़ी घटना होनेवाली हो तो उसका प्रभाव देवशक्तिपर पड़ता है और प्रभाव प्रबल हो तो शोकादिके लक्षण स्थूल जगत्‌में प्रकट हो जाते हैं।

देवता जब प्रसन्न होकर अपने आराधकको कोई पदार्थ देते हैं तो वह पदार्थ कहींसे आता नहीं; अपितु देवताओं का भाव ही पदार्थके रूपमें मूर्त हो जाता है। पाण्डवोंको वनवासके समय सूर्यनारायण से एक पात्र मिला था। महाभारतमें वर्णन है कि द्रौपदी जबतक भोजन न कर ले, तबतक उस पात्रसे चाहे जितने व्यक्तियोंको भोजन करनेयोग्य पदार्थ प्राप्त हो सकते थे। पात्रमें इतने पदार्थ नित्य भरे नहीं होते थे। पात्र देते समय देवताका जैसा संकल्प था, वह शक्ति उस पात्रमें मूर्त हो गयी थी। संकल्पसे वस्तुनिर्माण करनेवाले पुरुष इस समय भी देखे जाते हैं। इसी प्रकार देवताओंके हर्ष, शोकादिके चिह्न स्थूल जगत्‌में मूर्तिमान् हो जाते हैं। उनकी दिव्य दृष्टि जगत्में किसी बड़ी उथल-पुथलका प्रत्यक्ष करती है तो भूकम्प आदि होते हैं। इसीसे चन्दन, रक्तादिकी वृष्टि या मूर्तियोंमें क्रियाएँ प्रकट होती हैं।

शरीरके शकुन

अनेक बार हमारे शरीरके विभिन्न अंग फड़कते हैं या हथेलियों अथवा पैरोंके तलोंमें खुजली होती है। ये बातें शरीरमें वायु आदि दोषसे भी होती हैं और शकुनके रूपमें भी। प्रायः शकुनके रूपमें ये लक्षण तब प्रकट होते हैं, जब हम किसी कार्य, वस्तु या व्यक्तिके सम्बन्ध में सोच रहे हों। ये शकुन उसी सम्बन्धमें सूचना देते हैं। बिना हमारी इच्छाके या हम किसी सम्बन्धमें न सोचते हों, तो भी अंग-स्फुरणादि शकुन हो सकते हैं। ऐसे समय वे प्रभावकी महत्ता सूचित करते हैं।

समस्त नक्षत्रों की जानकारी:https://askkpastro.com/%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%a8%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a5%8d%e0%a4%aa%e0%a5%82/

जैसे विश्वके समस्त पदार्थोंके विभिन्न अधिष्ठाता देवता हैं, वैसे ही हमारे शरीरके भिन्न-भिन्न अंगोंके भी अधिष्ठाता देवता हैं। समष्टिमें व्यापक रूपसे कोई अद्भुत घटना होनी होती है तो उसमें उस देवताका प्रभाव प्रकट होता है और हमारे जीवनकी भावी घटनाका प्रभाव हमारे शरीरमें प्रकट होता है। कारण दोनों स्थानोंपर एक ही है। दोनों ही स्थानोंपर क्रिया देवशक्तिसे हुई है। जैसे समष्टिमें घटनाकी महत्ता तथा अल्पताके अनुसार लक्षण प्रकट होते हैं, वैसे ही शरीरमें भी छोटे या बड़े लक्षण दीख पड़ते हैं।

अंगस्फुरण, हथेलियों अथवा पादतलकी खुजलाहट और छींक- ये सामान्य लक्षण हैं। इनके अतिरिक्त और भी लक्षण शरीरमें प्रकट होते हैं; परंतु जैसे संसार में रक्तवर्षण या मूर्ति-हास्यादि कभी-कभी होते हैं, वैसे ही शरीरके ये लक्षण भी कभी-कभी किसीमें प्रकट होते हैं। पहने हुए आभूषण अकारण टूट या गिर जायँ, फूलोंकी माला अस्वाभाविक ढंगसे म्लान हो जाय, किसी अंगसे स्वेद बहने लगे, बिना कारण रुलायी आये और अश्रु गिरें, शरीरसे अकारण रक्त निकले, कार्यारम्भमें हाथके उपकरण गिर पड़ें, शरीर फिसल जाय- इस प्रकारके बहुत-से लक्षण शास्त्रोंने बतलाये हैं। कभी-कभी तो ये शकुनके रूपमें प्रकट होते हैं और कभी-कभी प्राकृतिक कारणोंसे-जैसे प्रमादवश हाथके उपकरण गिर सकते हैं या पैर फिसल सकता है। सब समय इनको शकुन मानना भी ठीक नहीं होता।

मृत्यु – शकुन

जब देवशक्तियाँ हमारे जीवनके साधारण कार्योंकी सूचना देती हैं, तब यह कैसे सम्भव है कि वे जीवनके परिवर्तनकी सूचना न दें। मृत्युके परिवर्तन तो प्रत्येक व्यक्तिमें प्रकट होते ही हैं। यदि हम उन्हें समझ सकें तो मृत्युका पूर्व अनुमान करना कठिन नहीं होता। मृत्यु शकुनोंमें चारों प्रकारके शकुन होते हैं। पशु-पक्षियोंद्वारा सूचना, मानसिक सूचना, स्वप्न तथा अंग लक्षण मृत्यु-शकुनोंके समान ही बहुत बड़े संकट या रोगकी सूचना भी होती है। अनेक बार तो घोर कष्टके शकुन और मृत्यु-शकुनमें इतना सूक्ष्म अन्तर रह जाता है कि दोनोंका भेद जानना सरल नहीं होता। जैसे काक-रति देखना बहुत बड़ी बीमारीकी सूचना तो है ही, स्थान, काल, दिशादिके भेदसे वह मृत्यु-शकुन भी हो सकता है। इसी प्रकार मस्तकपर कौए, गीध या चीलका बैठ जाना बड़ी आपत्ति और मृत्यु – दोनोंका सूचक हो सकता है।

अनेकों पुरुष ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अपना मृत्युकाल पहलेसे बतला दिया और वह ठीक ही निकला। यह कोई आवश्यक नहीं है कि ऐसे मनुष्य योगी या बड़े संयमी ही रहे हों। मृत्युसे पूर्व मनकी एक विचित्र स्थिति हो जाती है और जो उसे समझनेका प्रयत्न करते हैं, वे मृत्युकाल जान लेते हैं। स्वभावतः मनुष्य अपने मनकी खिन्नतासे पिण्ड छुड़ानेका अभ्यासी होता है, अतः वह मृत्युके समयकी खिन्नताको भी समझना नहीं चाहता। मृत्युसे कुछ पूर्व नासिकाका अग्रभाग, भौंहें और ऊपरका ओष्ठ- ये अपने आपको दिखलायी नहीं पड़ते। धूलिमें पड़े हुए पदचिह्न खण्डित होते हैं। अपनी छायामें छिद्र जान पड़ते हैं। छाया-पुरुषका मस्तक कटा हुआ दीखता है। इस प्रकारके बहुत से लक्षण हैं। ऐसे ही जिसकी मृत्यु निकट आ जाती है, वह स्वप्नमें अपनेको तेल लगाता, प्रेतसे पकड़ा जाता, भैंसे या गधेपर बैठकर दक्षिणकी यात्रा करता हुआ देखता है।

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स्वप्न शकुन

स्वप्नके समय हमारा अन्तर्मन स्थूल शरीरके बन्धनसे स्वतन्त्र होता है। हमारे स्वभाव, विचारादिके प्रभाव उसपर बन्धन नहीं लगा पाते, केवल प्रेरणा देते हैं। ऐसे समय वह प्रकृतिकी सूक्ष्म सूचनाओंको बहुत स्पष्ट रूपसे ग्रहण करता है। स्वप्नमें देखे हुए दृश्योंके शुभाशुभ विचार अत्यन्त विस्तृत हैं और इस विषयपर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी हैं। यहाँ इतना ही जान लेना चाहिये कि सब स्वप्न शकुन ही नहीं होते, उनमें और भी बहुत से तात्पर्य तथा कारण होते हैं। जागनेपर जो स्वप्न भूल जाते हैं, वे तो केवल मनकी कल्पना हैं। जो नहीं भूलते, उनमें भी बहुत से हमारी शारीरिक आवश्यकता या स्थितिको सूचित करते हैं। जैसे प्यास लगी हो या शरीरको जलकी आवश्यकता हो तो स्वप्नमें हम जल पानेका प्रयास करते हैं। इसी प्रकार यदि स्वप्नमें हम आकाशमें उड़ते या भोजन करते हैं तो इसका अर्थ है कि शरीरमें वायुतत्त्व विकृत है अथवा अजीर्ण है। कफ एवं पित्तके विकारसे जल तथा अग्नि देखे जाते हैं। स्वप्नमें जैसे शरीरकी विकृति एवं आवश्यकताकी सूचना रहती है, वैसे ही मानसिक विकारके लिये भी सूचना रहती है। स्वप्नमें हम जिस प्रवृत्ति या कार्यको करते हैं, उसपर ध्यान दें तो पता लगेगा कि जीवनमें हमें किस ओर जानेका वहाँ संकेत है। जैसे एक व्यक्ति साहित्यका अध्ययन करता है और स्वप्नमें श्लोक गिनता, जोड़ता है तो इसका अर्थ है कि वह गणितमें लगनेपर विशेष उन्नति कर सकेगा। स्वप्नके द्वारा भय, उद्वेग आदि मानसिक दुर्बलताओंका कारण भी जाना जाता है। स्वप्न- विज्ञानपर पाश्चात्य विद्वानोंने बहुत विचार किया है। हमारे शास्त्रोंमें भी इसपर विस्तृत आलोचना है। तात्पर्य इतना ही है कि स्वप्नमें से कौन-सा स्वप्न शकुन सम्बन्धी है, यह निश्चय करना सरल नहीं है। ब्राह्ममुहूर्त में देखे गये स्वप्न, जिनके पश्चात् पुनः निद्रा न आयी हो, शकुनकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण माने गये हैं। यदि एक ही प्रकारके दृश्य स्वप्नमें बार-बार दिखायी दें तो उनपर विचार करना चाहिये। वे शारीरिक सूचना हों या शकुन- दोनों ही प्रकारसे उपयोगी हैं। स्वप्नोंपर विचार करते समय पहले यही देखना चाहिये कि वे शारीरिक सूचना या मानसिक स्थितिसे प्रेरित तो नहीं हैं। इसके पश्चात् ही उनका शकुन- विचार उचित है।

शकुन शास्त्र के अनुसार स्वप्नके समय हमारी स्थिति भावलोकमें होती है। अतएव जाग्रत्-दशाके स्थूल जगत्की अपेक्षा उस समय देवदर्शन एवं देवताओंके आदेश या सूचनाओंका प्राप्त होना सरल होता है। अधिकारी पुरुषोंको ऐसी अनुभूतियाँ होती भी हैं, फिर भी स्वप्नमें मनकी भावना साकार हुई या देवदर्शन हुआ, यह जानना सरल नहीं है। इसलिये स्वप्नकी भविष्यवाणियोंपर विश्वास करना बहुधा भ्रमपूर्ण होता है। स्वप्नके आदेश यदि निष्ठा, शास्त्र एवं आचारके प्रतिकूल हों तो उनपर ध्यान देना ही नहीं चाहिये।

शकुनों का तात्पर्य

शकुन चाहे स्वप्नमें हों या जाग्रत् दशामें हों, अपने शरीरमें हों या संसारमें, पशु-पक्षियोंद्वारा हों या दिव्य शक्तियोंद्वारा, प्रत्येक दशामें उनका तात्पर्य है- हमें सावधान करना और आश्वासन देना। शकुन शास्त्र यह सिद्ध करता है कि जगत्की संचालिका एक चेतनशक्ति है और वह हमारे प्रति ममतामयी है। वह जड़, विचारहीन और बर्बर प्रकृति नहीं है। उसमें अपार दया, स्नेह और ममत्व है।

यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब घटनाओंका निवारण नहीं हो सकता तो उनकी सूचना मिलनेसे ही हमें क्या लाभ? इसका उत्तर यह है कि अनेक घटनाएँ स्थितिसे सम्बन्ध रखती हैं। वर्षा होनेवाली है तो होगी ही, उस समय यदि आप घरसे बाहर न निकलें तो भीगनेसे बच जायँगे। इसी प्रकार यात्रादिके अपशकुन जो अनिष्ट परिणाम प्रकट करते हैं, उनसे यात्रा रोककर बचा जा सकता है। अनेक बार मनुष्य जान-बूझकर अपनेको संकटमें डाल लेता है। ऐसे समय मानना पड़ता है कि उसका संकटमें पड़ना अनिवार्य था। वह पूर्वनिश्चित था। सब समय ऐसा नहीं होता। यदि ऐसा हो तो हमारे लिये मार्ग-विवरण तथा संकटकी सूचनाएँ अनावश्यक हो जायँ । हम प्रत्येक कार्यमें पूर्व सूचना पानेकी इच्छा रखते हैं और जीवनमें उसका महत्त्व जानते हैं, अतः शकुनकी महत्ता हम अस्वीकार नहीं कर सकते।

हम मान लें कि सब घटनाएँ अनिवार्य हैं और बात कुछ ऐसी ही है भी, इतनेपर भी पूर्व सूचना महत्त्वहीन नहीं हो जाती। यदि हमें पता चल जाय कि हम बीमार होंगे और इतना कष्ट पायेंगे तो उसके लिये पहलेसे मानसिक दृढ़ता प्राप्त कर सकते हैं। यदि एक साइकिल सवार जान ले कि गड्ढे में गाड़ी गिरेगी ही तो वह अपनेको बहुत कुछ बचा लेता है। इसी प्रकार हम शारीरिक एवं भौतिक दृष्टिसे भले ही घटनाओंके शिकार बनें, किंतु मानसिक दृष्टिसे प्रस्तुत रहने और सावधान होनेका मूल्य कम नहीं है।

अनेक व्यक्ति चाहते हैं कि उन्हें अपना मृत्युकाल पूर्व ही ज्ञात हो जाय। ऐसा कोई व्यक्ति कदाचित् ही मिलेगा, जो अपने जीवनके भविष्यके सम्बन्ध में उत्सुक न हो। हम यह विश्वास कर लें कि भविष्य जानकर भी हम उसे तनिक भी प्रभावित नहीं कर सकते, तब भी हमारा कुतूहल शान्त नहीं होता। जीवनमें कुतूहल वृत्तिका मूल्य कम नहीं है। शारीरिक भोग-पूर्तिकी अपेक्षा मनुष्यका प्रयत्न मानसिक तुष्टिके लिये ही अधिक है। शकुन-शास्त्र एक सीमातक कुतूहल वृत्तिकी तुष्टि करता है, अधिक सावधान करता है और आश्वासन देता है। शकुनोंकी सार्थकता हमारे जीवनमें बहुत बड़ी है। अपनी असामर्थ्यके कारण ‘अंगूर खट्टे हैं’ वाली बात ही आजके समाजको इधरसे विमुख करती है।

शकुन-प्रभाव

शकुन जब स्वतः होते हैं, तभी उनका कुछ प्रभाव भी होता है। आजकल जैसे दूसरे नियमोंका दुरुपयोग होता है, वैसे ही शकुनसम्बन्धी धारणाका भी दुरुपयोग चल पड़ा है। दीपावलीके दिन बहेलिया घर-घर घूमकर बँधा हुआ नीलकण्ठ दिखलाता है और बड़े लोग यात्रा शकुन बनानेके लिये जलभरे घड़े मार्गमें रखनेकी व्यवस्था करते हैं—ऐसे कृत्रिम शकुनसे कोई परिणाम नहीं हुआ करता। इससे मनुष्य अपने आपको भ्रान्त ढंगसे सन्तुष्ट करता है और सिद्धान्तका परिहास ही होता है।

शकुनका प्रभाव समझनेके लिय भाव जगत् और उसकी प्रेरणा माने बिना काम चल नहीं सकता। जैसे आकर्षणशक्ति एवं विद्युत् शक्तिको अस्वीकार कर देनेपर वर्तमान विज्ञान चलेगा ही नहीं। न तो यन्त्र बन सकेंगे और न कार्यसम्बन्धी अनुमान होंगे। आकर्षण एवं विद्युत् – दोनों अप्रत्यक्ष शक्ति हैं। प्रभावके द्वारा ही उनकी सत्ताका बोध होता है, ऐसे ही भाव जगत् एवं दिव्य जगत् भी प्रत्यक्ष नहीं हैं। विश्वकी अद्भुत घटनाओंसे ही उनकी सत्ता जानी जाती है। शकुनके प्रभावसे तो अनुभव करनेकी वस्तु हैं। कोई यह जाने न जाने कि विद्युत् कैसे उत्पन्न होती है, परंतु बटन दबाकर विद्युत्प्रकाश तो वह प्राप्त कर ही सकता है। इसी प्रकार शकुनके जो परिणाम शास्त्रवर्णित हैं, वे तो सभीको प्राप्त होते हैं। जो उन लक्षणोंको जानते हैं, वे सावधान हो जाते हैं। जो नहीं जानते या उपेक्षा करते हैं, उनके साथ भी परिणाम तो वही घटित होते हैं।

अपशकुन-परिहार

शास्त्रों में अपशकुनोंके परिहारके अनेक उपाय बताये गये हैं। जैसे यात्राके समय अपशकुन हों तो उस समय निश्चित कालतक यात्रा रोक देनी चाहिये जैसे ज्योतिषशास्त्र में ग्रह-बाधाकी शान्तिके लिये नाना प्रकारके अनुष्ठानोंका विधान है, वैसे ही अपशकुनोंके दोषको दूर करनेके लिये भी जप-दान आदिका निर्देश है। अनेक लोग अपशकुनके निमित्तको ही दूर करनेका प्रयत्न करते हैं— जैसे बिल्ली रोती हो तो उसे भगानेका या उल्लूको मारनेका यन। इस प्रकार अपशकुनोंका परिहार नहीं होता। ये पशु-पक्षी आदि तो सूचना देनेवाले होते हैं। इनको दूर कर देनेसे अनिष्ट कैसे दूर हो जायगा? घड़ी बन्द कर देनेसे कहीं समयकी गति रुक सकती है? उल्टे इन सूचक लक्षणोंका रहना अच्छा है। यदि ऐसा न हो तो सृष्टि-विधानमें वे रहते ही नहीं। जप-दानादिसे अपशकुनका परिहार हुआ या नहीं, यह बात सूचक लक्षणोंसे जानी जा सकती है।

जैसे रोग होनेपर ओषधि करना एक प्रकारका प्रायश्चित्तरूप कर्म है, जैसे प्रायश्चित्तसे पापका परिहार होता है, वैसे ही संकल्पपूर्वक जप-दानादि कर्म प्रारब्धमें सम्मिलित होकर अनिष्टका निवारण करते हैं। जैसे यन्त्रद्वारा सूचना मिलनेपर कि हिमवृष्टि होनेवाली है, कोयला जलाकर या विद्युत्की उष्णतासे उसका निवारण किया जा सकता है, जैसे प्रकृतिके नियमोंको जानकर उसमें स्वेच्छानुसार परिवर्तन कर लेना ही विज्ञानका कार्य है, वैसे ही अनुष्ठानसे अनिष्टकी निवृत्ति भी होती है।

स्थूल जगत् तथा उसके नियम सूक्ष्म (भाव) जगत् एवं उसके नियमोंसे भिन्न नहीं हैं। केवल स्थूल जगत्में उनका रूप स्थूल होनेसे वे यन्त्रद्वारा प्रत्यक्ष हो पाते हैं और स्थूल क्रियासे प्रभावित होते हैं। सूक्ष्म जगत् मनकी एकाग्रतासे सम्बन्ध रखता है और उसे जप, ध्यान, भाव आदिकी सूक्ष्म शक्तियों से प्रभावित किया जाता है। शकुन हमें सूचना देते हैं। ये प्रकृतिकी चेतावनीके स्वरूप हैं, जिससे हम सावधान हों और अपने बचावका प्रयत्न कर सकें।

शकुन शास्त्रका प्रभाव हिन्दू संस्कृतिमें बहुत व्यापक है। ज्योतिषशास्त्रके तीन अंग हैं- नक्षत्र – गणित, लक्षण ज्ञान और ( सामुद्रिक) के साथ शकुनशास्त्र । इनमें तीसरा मुख्य अंग है। वैद्यक शास्त्रमें भी चिकित्सकके लिये दूत- लक्षण एवं चिकित्साके लिये जाते समय शकुन आदिका निर्देश है। कुशल वैद्य इन शकुनोंका ध्यान रखते हैं और लाभ उठाते हैं। समाजमें और जीवनमें जितने भी संस्कार होते हैं, सबमें शकुनका विचार होता है; क्योंकि प्रत्येक कार्य किसी-न-किसी उद्देश्यसे होता है। अतः उद्देश्यके सम्बन्धका शकुन विचार छोड़ा कैसे जा सकता है ? यात्रा, युद्ध, सन्धि, मैत्री, व्यापार, विवाह, सन्तानोत्पत्ति, कृषि, विवादप्रभृति समस्त कामोंमें शकुन- विचार होता है। महाभारत, रामायण, पुराण आदि ग्रन्थोंमें शकुनोंकी ऐसी सहस्त्रों घटनाओंका वर्णन है। सबके लिये शकुनोंका विस्तृत विवेचन है।

अद्भुतानीह यावन्ति भूमौ वियति वा जले।
त्वयि विश्वात्मके तानि किं मेऽदृष्टं विपश्यतः ॥
( श्रीमद्भा० १० । ४१।४)

पृथ्वी, आकाश या जलमें जो कुछ भी विचित्रताएँ हैं, वे सब आप विश्वात्मामें ही हैं। जिसने आपका साक्षात्कार कर लिया, उसके लिये कहीं कोई अद्भुत वस्तु रह नहीं जाती । वह आपकी प्रत्येक भाव-भंगी, प्रत्येक संकेतको समझता है। विश्व उस चिन्मय तत्त्वका भाव-विस्तार है। जिन ऋषियोंने उसका साक्षात्कार किया था, उनके लिये उसके संकेत और संकेतोंका रहस्य पहेली नहीं था। उन्होंने हमारे लाभके लिये उसका उसी प्रकार उपदेश किया है, जैसे अध्यापक विद्यार्थियोंको भूगोल या गणित पढ़ाते हैं। आज हम उस स्थूल विज्ञानको लेकर जो स्थूल प्रकृतिके अपार रहस्यमें अधूरा और भ्रामक ज्ञान ही रखता है, ऋषियोंके ज्ञानकी आलोचना करने लगते हैं। जैसे प्रथम कक्षाके विद्यार्थीका लाभ इसमें है कि वह अंक, जोड़ आदिकी बातोंको मान ले, उनपर विश्वास कर ले; धीरे-धीरे वह अपनी मान्यताका रहस्य समझ लेगा; आरम्भमें ही वह रेखा और शून्यकी परिभाषाओंपर झगड़ेगा तो मूर्ख ही रह जायगा। ऐसे ही शास्त्रपर विश्वास करके उनके अनुसार आचरण करनेसे तो योग्यतानुसार धीरे-धीरे उनका सत्य जाना जा सकता है; पर प्रारम्भमें ही तर्क करनेसे अज्ञान और हानि ही हाथ लगती है।

शुभ-अशुभ शकुन

ज्योतिषशास्त्रकी दृष्टिमें शुभ-अशुभ शकुनका बड़ा महत्त्व है। अशुभ शकुनोंके निराकरणके उपाय भी ज्योतिषशास्त्र में बताये गये हैं। शकुनकी मान्यता आज भी हमारे समाजमें है। इसके अनुसार ही हमारे बुजुर्ग यात्रा आदि सभी कार्य करते हैं। यहाँ हिन्दूसमाजमें प्रचलित कुछ शुभ-अशुभ शकुनोंका विवेचन किया जा रहा है

यात्राके समय शुभ-अशुभ-शकुन-विचार

सोम शनिश्चर पूरब न चालू। मंगल बुध उत्तर दिशि कालू ॥
रवि शुक्र जो पश्चिम जाय। हानि होय पर सुख न पाय ॥
बीफे दक्षिण करे पयाना। फिर नहीं होवे ताको आना ॥

अर्थात् सोमवार, शनिवारको पूर्वदिशामें यात्रा नहीं करनी चाहिये। मंगलवार एवं बुधवारको उत्तरदिशामें यात्रा करना कालको आमन्त्रण देना माना जाता है। रविवार एवं शुक्रवारको पश्चिमदिशामें यात्रा करनेसे हानि होती है तथा दुःख प्राप्त होता है। गुरुवारको दक्षिणदिशामें यात्रा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यात्रासे वापस आनेकी सम्भावना कम रहती है।

ज्योतिष – मतानुसार निराकरणके उपाय

यदि उपर्युक्त दिन एवं दिशाओंमें यात्रा करना आवश्यक हो तो निम्नानुसार यात्रा की जा सकती है सोमवार एवं शनिवारको पूर्वकी यात्रा करनेकी परिस्थितिमें यात्रा करनेवालेको क्रमशः दूधका पानकर ‘ॐ नमः शिवाय’ मन्त्रका जप करते हुए यात्रा करनी चाहिये। शनिवारको उड़दके दाने पूर्वदिशामें चढ़ाकर तथा कुछ दाने खाकर यात्रा करे एवं यात्राके समय शनि-गायत्रीका पाठ करता रहे- ‘ॐ भगभवाय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्नः शनिः प्रचोदयात् ।’

मंगलवार एवं बुधवारको यात्रा करना जरूरी हो तो मंगलवारको गुड़का दान करे, कुछ गुड़ मुखमें धारण करे तथा मंगल-गायत्रीका जप करे—‘ॐ अङ्गारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात् ।’

बुधवारको उत्तरदिशाकी यात्रा आवश्यक हो तो तिल एवं गुड़का दान करे एवं उसीसे बने पकवानका भोजनकर यात्रा करे, यात्राके पूर्व पाँच बार बुध गायत्रीका पाठकर यात्रा करनी चाहिये—‘ ॐ सौम्यरूपाय विद्महे बाणेशाय धीमहि तन्नः सौम्यः प्रचोदयात् ।’

वैसे तो ज्योतिषशास्त्रके मतानुसार रविवार एवं शुक्रवारको पश्चिमदिशामें यात्रा करना निषिद्ध बताया गया है, फिर भी अत्यन्त आवश्यक हो जानेपर यात्रा करनी हो तो उपायकर यात्रा की जा सकती है—

रविवारको पश्चिममें यात्रा करनेके पूर्व शुद्ध गायका घी लेकर पूर्वदिशाकी ओर मुँहकर हवन करे तथा यात्रासे पूर्व घीका पान करे एवं कन्याओंको दक्षिणा देकर सूर्यगायत्रीका जप करते हुए यात्रा प्रारम्भ करे ‘ॐ आदित्याय विद्महे प्रभाकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ।’

गुरुवारको दक्षिणदिशामें यात्रा करना सर्वथा वर्जित है, किंतु आवश्यक शुभकार्यहेतु यात्रा करना जरूरी हो गया हो तो निम्न उपायकर यात्रा की जा सकती है—

गुरुवारको यात्राके पूर्व दक्षिणदिशामें पाँच पके हुए नीबू सूर्योदयसे पूर्व स्नानकर गीले कपड़ेमें लपेटकर फेंक दे, यात्रासे पूर्व दहीका सेवन करे तथा शहद, शक्कर एवं नमक तीनोंको समभागमें मिलाकर हवन करे और गुरुगायत्रीका जपकर यात्रा प्रारम्भ करे ‘ॐ आङ्गिरसाय विद्महे दिव्यदेहाय धीमहि तन्नो जीवः प्रचोदयात् ।’

यात्राके समय अशुभ शकुन- यात्राके समय घरसे निकलते ही यदि निम्नमेंसे कोई दृष्टिगोचर हो जाय तो यात्रा रोक देनी चाहिये

वन्ध्या स्त्री, काला कपड़ा, हड्डी, सर्प, नमक, अंगार, विष्ठा, चर्बी, तेल, उन्मत्त पुरुष, रोगी, जलता गृह, बिलाव युद्ध, लाल वस्त्र, सामने खाली घड़ा, भैंसोंकी लड़ाई, बिल्लीद्वारा रास्ता काटना आदि। (मुहूर्तचिन्तामणि ११ १०२-१०३)

यात्राके समय शुभ शकुन- यात्रापर घरसे निकलते ही यदि निम्नमेंसे कोई भी दिखायी दे तो ज्योतिषमतानुसार शुभ शकुन माना गया है

ब्राह्मण, हाथी, घोड़ा, गौ, फल, अन्न, दूध, दही, कमलपुष्प, सफेद वस्तु वेश्या, वाद्य, मयूर नेवला, सिंहासन, जलता दीपक, गोदमें शिशु लिये हुए स्त्री, नीलकण्ठ पक्षी, चम्पाके पुष्प, कन्या, शुभवचन, भरा हुआ घड़ा, घी, गन्ना, सफेद बैल, वेदध्वनि, मंगल-गीत आदि। (मुहूर्तचिन्तामणि ११ । १०० )

आजके इस आधुनिक वैज्ञानिक युगमें उपर्युक्त शुभ-अशुभ शकुनोंपर हमारी युवा पीढ़ी विश्वास नहीं करती, किंतु कुछ ऐसी अनहोनी घटनाओंके होनेके कारण आजकी पीढ़ी पुनः बुजुर्गोंद्वारा बताये शकुन अपशकुनपर धीरे-धीरे विश्वास करने लगी है।

यात्राके समय छींक भी शुभ एवं अशुभ शकुनका संकेत देती है। ज्योतिषशास्त्र के मतानुसार कुछ कार्य ऐसे भी हैं, जिनके करते समय छींक आती है तो अशुभ होते हुए भी शुभ मानी जाती है। जैसे- आसन, शयन, शौच, दान, भोजन, औषधसेवन, विद्यारम्भ, बीजारोपण, युद्ध या विवाहमें जाते वक्त बायीं ओर या पृष्ठभागमें हुई छींक- भोजने शयने दाने आसने वामे पृष्ठे युद्धे औषधसेवने अध्ययने बीजवापे एषु शुभा।

छिपकलीके गिरनेपर शुभ-अशुभ शकुन विचार तथा शुभाशुभ फल- छिपकलीका शरीरके किसी भी भागपर गिरना शुभ-अशुभ शकुनका संकेत होता है। बुजुर्गोंके एवं ज्योतिषके मतानुसार इसका विवरण यहाँ दिया जा रहा है

सिरपर छिपकलीके गिरनेपर धनलाभका संकेत है। ललाटपर- बन्धुदर्शन, भौंहमध्य राजसम्मान, नासिका – धनप्राप्ति, दाहिनी भुजा-नृप समागम, बायीं भुजा राजभय, उदर – भूषणलाभ, पीठ- बुद्धिनाश, जानुद्वय – शुभागमन, जंघाद्वय – शुभ, दोनों हाथ- वस्त्रलाभ, कन्धा – विजय, दाहिना मणिबन्ध – भय, धनहानि, कष्ट, वाम मणिबन्ध — अपकीर्ति, मुखपर- मीठा भोजन, दाहिना – पैर – यात्रा, बायाँ पैर – बन्धुनाश ।

छिपकली गिरने या गिरगिटके किसी अंगपर चढ़नेका तिथिके अनुसार शुभाशुभ फल बताते हुए लोक-ज्योतिषी भड्डरी कहते हैं

पड़े छिपकरी अंग पर कर काँटा चढ़ि जाय ।
तिथि और वार नक्षत्र कर इनको फल दरसाय ॥
पड़िवा पड़ै जो छिपकली सरट चढ़े अंग।
रोग बढ़ावें वेग हो, करे शक्ति को भंग ॥
दुतिया में दे राज घनेरा । त्रितिया द्रव्य लाभ बहुतेरा ॥
दुक्ख चतुर्थी मोहि बरवानी। पंचम छट्टि दई धन धानी ॥
सप्तम अष्टम नौमी दसमीं । मरिवे नाहि तो आवे करमीं ॥
एकादशी पुत्र को लावै । करै द्वादशी द्रव्य उछाहै ॥ 
त्रयोदसी दे सबही सिद्धि। चतुर्दशी में नासै ऋद्धि ॥

उपर्युक्त अनिष्टकारक स्थिति बननेपर इसके निराकरणके लिये निम्न उपाय करना चाहिये सचैल स्नानकर शिवालयमें घीका दीपक रखकर ‘ॐ नमः शिवाय’ मन्त्रका जप करना चाहिये। साथ ही रुद्राभिषेक भी कराना लाभकारी माना गया है। नोट – पुरुषके दाहिने अंगमें तथा स्त्रीके बाँयें – अंगमें छिपकलीका पतन शुभ माना गया है।

अंगोंके फड़कनेपर शुभ-अशुभ शकुन एवं उनका फल – मस्तक फड़कनेपर- भूमिलाभ, ललाट फड़कनेपर स्थानलाभ, दोनों कन्धे पकड़नेपर- भोग, भौंहमध्य फड़कनेपर- सुख, दोनों भौंहके फड़कनेपर महान् सुख, नेत्रोंके फड़कनेपर – धनप्राप्ति, नासिकास्फुरण प्रीति, सुख, नेत्रकोण फड़कनेपर- स्त्रीलाभ, वक्षःस्थल फड़कनेपर- विजय, हृदय फड़कनेपर- कार्यसिद्धि, कमर – प्रमोद, नाभि – स्त्रीनाश, उदर – धनलाभ, गुदा – वाहनलाभ, ओठ – प्रिय वस्तुकी प्राप्ति, दाढ़ी – भय, कष्ट, कण्ठ – ऐश्वर्यप्राप्ति, पीठ- पराजय, मुख – मित्रप्राप्ति, दक्षिणबाहु – विजय, वाम बाहु – धनागम, जानु – शत्रुभय ।

नोट – पुरुषका दाहिना अंग और स्त्रीका बायाँ अंग फड़कना शुभ होता है, किंतु स्त्रीकी भुजा एवं नेत्रोंका फल विपरीत होता है।