शनि देव 

(1) महाराज दशरथ और शनि देव

पद्मपुराणमें कथा आती है, एक बार जब शनि कृतिका नक्षत्रके अन्तमें थे, तब ज्योतिषियोंने राजा दशरथजीको बताया कि अब शनिदेव रोहिणी नक्षत्रको भेदकर (जिसे शकटभेदके नामसे भी जाना जाता है) जानेवाले हैं, जिसका फल देव-दानवोंको भी भयंकर है और पृथ्वीपर तो बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष होना है।

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यह सुनकर सब लोग व्याकुल हो गये। तब राजाने श्रीवसिष्ठजी आदि ब्राह्मणोंको बुलवाकर उनसे इसके परिहारका उपाय पूछा। वसिष्ठजी बोले कि यह योग ब्रह्मा आदिसे भी असाध्य है, इसका परिहार कोई नहीं कर सकता। यह सुनकर राजा परम साहस धारणकर दिव्य रथमें अपने दिव्यास्त्रोंसहित बैठकर सूर्यके सवा लक्ष योजन ऊपर नक्षत्रमण्डलमें गये और वहाँ रोहिणी नक्षत्रके पृष्ठभागमें स्थित होकर उन्होंने शनिको लक्षित करके धनुषपर संहारास्त्रको चढ़ाकर आकर्ण पर्यन्त खींचा।

पंचक शांति:https://askkpastro.com/%e0%a4%aa%e0%a4%82%e0%a4%9a%e0%a4%95-%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%aa%e0%a5%82%e0%a4%9c%e0%a4%a8-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a7%e0%a4%bf-%e0%a4%aa%e0%a4%82%e0%a4%9a%e0%a4%95/

शनि यह देखकर डर तो गये, पर हँसते हुए बोले कि राजन्! तुम्हारा पौरुष, उद्योग और तप सराहनीय है।

मैं जिसकी तरफ देखता हूँ, वह देव-दैत्य कोई भी हो, भस्म हो जाता है, पर मैं तुम्हारे तप और उद्योगसे प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर माँगो राजाने कहा कि जबतक पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य आदि हैं, तबतक आप कभी रोहिणीका भेदन न करें। शनिने एवमस्तु कहा। तदनन्तर शनिने कहा- हम बहुत प्रसन्न हैं, तुम और वर माँगो तब राजाने कहा कि मैं यही माँगता हूँ कि शकटभेद कभी न कीजिये और बारह वर्ष दुर्भिक्ष कभी न हो।

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शनिने यह वर भी दे दिया। इसके बाद महाराजा दशरथने धनुषको रख दिया और वे हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।

दशरथजी बोले- जिनके शरीरका वर्ण कृष्ण, नील तथा भगवान् शंकरके समान है, उन शनिदेवको नमस्कार है।

जो जगत् के लिये कालाग्नि एवं कृतान्तरूप हैं, उन शनैश्चरको बारम्बार नमस्कार है। जिनका शरीर कंकाल है तथा जिनकी दाढ़ी-मूँछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेवको प्रणाम है जिनके बड़े बड़े नेत्र, पीठमें सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन शनैश्चरदेवको नमस्कार है।

जिनके शरीरका ढाँचा फैला हुआ है, जिनके रोएँ बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े, किंतु सूखे शरीरवाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरूप हैं, उन शनिदेवको बारम्बार प्रणाम है। शने। आपके नेत्र खोखलेके समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर, रौद्र, भीषण और विकराल हैं।

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आपको नमस्कार है। बलीमुख आप सब कुछ भक्षण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन ! भास्करपुत्र! अभय देनेवाले देवता! आपको प्रणाम है। नीचेकी ओर दृष्टि रखनेवाले शनिदेव! आपको नमस्कार है। संवर्तक आपको प्रणाम है। मन्दगतिसे चलनेवाले शनैश्चर आपका प्रतीक तलवारके समान है, आपको पुन: पुन: प्रणाम है।

आपने तपस्यासे अपने देहको दग्ध कर दिया है; आप सदा योगाभ्यासमें तत्पर, भूखसे आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सदा सर्वदा नमस्कार है। ज्ञाननेत्र! आपको प्रणाम । कश्यपनन्दन सूर्यके पुत्र शनिदेव! आपको नमस्कार । आप सन्तुष्ट होनेपर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होनेपर उसे तत्क्षण हर लेते हैं।

देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़नेपर समूल नष्ट हो जाते हैं। देव! मुझपर प्रसन्न होइये मैं वर पानेके योग्य हूँ और आपकी शरणमें आया हूँ।

आयु निर्णय ज्योतिष:https://askkpastro.com/%e0%a4%86%e0%a4%af%e0%a5%81-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a3%e0%a4%af-%e0%a4%9c%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b7/

स्तोत्र * सुनकर शनि प्रसन्न हुए और पुनः वर माँगनेको कहा। राजाने माँगा कि आप किसीको पीड़ा न पहुँचायें।

शनिने कहा यह वर असम्भव है (क्योंकि जीवोंके कर्मानुसार दुःख-सुख देनेके लिये ही ग्रहोंकी नियुक्ति है), अतः हम तुमको यह वर देते हैं कि जो तुम्हारी इस स्तुतिको पढ़ेगा, वह पीड़ासे मुक्त हो जायगा। हे राजन् ।

किसी भी प्राणीके मृत्युस्थान, जन्मस्थान या चतुर्थस्थानमें मैं रहूँ तो उसे मृत्युका कष्ट दे सकता हूँ, किंतु जो श्रद्धासे युक्त, पवित्र और एकाग्रचित्त हो मेरी लोहमयी सुन्दर प्रतिमाका शमीपत्रोंसे पूजन करके तिलमिश्रित उड़द-भात, लोहा, काली गौ या काला वृषभ ब्राह्मणको दान करता है और पूजनके पश्चात् हाथ जोड़कर मेरे इस स्तोत्रका जप करता है, उसे मैं कभी भी पीड़ा नहीं दूंगा।

गोचरमें, जन्मलग्नमें, दशाओं तथा अन्तर्दशाओंमें ग्रहपीड़ाका निवारण करके मैं सदा उसकी रक्षा करूंगा। इसी विधानसे सारा संसार पीड़ासे मुक्त हो सकता है। तीनों वर पाकर राजा पुनः रथपर आरूढ़ होकर श्रीअयोध्याजीको लौट आये।

* नमः कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च । नमः कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नमः ॥
नमो निर्मासदेहाय दीर्घश्मनुजटाय च । नमो विशालनेत्राय शुष्कोदरभयाकृते ॥
नमः पुष्कलगात्राय स्थूलरोग्णे च वै पुनः । नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ॥
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नमः । नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने ।।
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते । सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभवदाय च ॥
अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते । नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तु ते ॥
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च । नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नमः ॥
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मजसूनवे । तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥
देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगाः । त्वया विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः । प्रसादं
कुरु मे देव वराहोऽहमुपागतः ॥

(पद्मपुo उo 34 । 27-35)

(2) महामुनि पिप्पलाद और शनिदेव

एक बार त्रेतायुगमें अनावृष्टिके कारण भयंकर दुर्भिक्ष पड़ गया। उस घोर अकालमें कौशिकमुनि अपनी स्त्री तथा पुत्रोंके साथ अपना निवास स्थान छोड़कर दूसरे प्रदेशमें निवास करने निकल पड़े।

कुटुम्बका भरण-पोषण दूभर हो जानेके कारण बड़े कष्टसे उन्होंने अपने एक बालकको मार्गमें ही छोड़ दिया। वह बालक अकेला भूख-प्याससे तड़पता हुआ रोने लगा। उसे अकस्मात् एक पीपलका वृक्ष दिखायी पड़ा। उसके समीप ही एक बावड़ी भी थी। बालकने पीपलके फलोंको खाकर ठंडा जल पी लिया और अपनेको स्वस्थ पाकर वह वहीं कठिन तपस्या करने लगा तथा नित्यप्रति पीपलके फलोंको खाकर समय व्यतीत करने लगा।

अचानक वहाँ एक दिन देवर्षि नारद पधारे, उन्हें देखकर बालकने प्रणाम किया और आदरपूर्वक बैठाया। दयालु नारदजी उसकी अवस्था, विनय और नम्रताको देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने बालकका माँजीबन्धन आदि सब संस्कारकर पद-क्रम-रहस्यसहित वेदका अध्ययन कराया तथा साथ ही द्वादशाक्षर वैष्णवमन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का उपदेश दिया।

अब वह प्रतिदिन विष्णु भगवान्‌का ध्यान और मन्त्रका जप करने लगा। नारदजी भी वहीं रहे। थोड़े समयमें ही बालकके तपसे सन्तुष्ट होकर भगवान् विष्णु गरुड़पर सवार हो वहाँ पहुँचे।

देवर्षि नारदके वचनसे बालकने उन्हें पहचान लिया, तब उसने भगवान्‌में दृढ़ भक्तिकी माँग की। भगवान्ने प्रसन्न होकर ज्ञान और योगका उपदेश प्रदान किया और अपनेमें भक्तिका आशीर्वाद देकर वे अन्तर्धान हो गये। भगवान्के उपदेशसे वह बालक महाज्ञानी महर्षि हो गया।

सम्पूर्ण नक्षत्रों की जानकारी:https://askkpastro.com/%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%a8%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a5%8d%e0%a4%aa%e0%a5%82/

एक दिन बालकने नारदजीसे पूछा-‘महाराज! यह किस कर्मका फल है, जो मुझे इतना कष्ट उठाना पड़ा? इतनी छोटी अवस्थामें भी मैं क्यों पीड़ित हो रहा हूँ? मेरे माता-पिताका कुछ भी पता नहीं, वे कहाँ हैं? फिर भी मैं अत्यन्त कष्टसे जी रहा हूँ।

द्विजोत्तम! सौभाग्यवश आपने दया करके मेरा संस्कार किया और मुझे ब्राह्मणत्व प्रदान किया। यह वचन सुनकर नारदजी बोले ‘बालक! शनैश्चरग्रहने तुम्हें बहुत पीड़ा पहुँचायी है और आज यह सम्पूर्ण देश उसके मन्दगतिसे चलनेके कारण उत्पीड़ित है। देखो, वह अभिमानी शनैश्चर ग्रह आकाशमें प्रज्वलित दिखायी पड़ रहा है।’

यह सुनकर बालक क्रोधसे अग्निके समान उद्दीप्त हो उठा। उसने उग्र दृष्टिसे देखकर शनैश्चरको आकाशसे भूमिपर गिरा दिया। शनैश्चर एक पर्वतपर गिरे और उनका पैर टूट गया, जिससे वे पंगु हो गये।

देवर्षि नारद भूमिपर गिरे हुए शनैश्चरको देखकर अत्यन्त प्रसन्नतासे नाच उठे। उन्होंने सभी देवताओंको बुलाया ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, अग्नि आदि देवता वहाँ आये और नारदजीने शनैश्चरकी दुर्गति सबको दिखायी।

ब्रह्माजीने बालकसे कहा- महाभाग ! तुमने पीपलके फल भक्षणकर कठिन तप किया है। अतः नारदजीने तुम्हारा पिप्पलाद नाम उचित ही रखा है। तुम आजसे इसी नामसे संसारमें विख्यात होओगे। जो कोई भी शनिवारको तुम्हारा भक्तिभावसे पूजन करेंगे अथवा ‘पिप्पलाद’ इस नामका स्मरण करेंगे, उन्हें सात जन्मतक शनिकी पीड़ा नहीं सहन करनी पड़ेगी और वे पुत्र पौत्रसे युक्त होंगे।

अब तुम शनैश्चरको पूर्ववत् आकाशमें स्थापित कर दो; क्योंकि इनका वस्तुतः कोई अपराध नहीं है। ग्रहोंकी पीड़ासे छुटकारा पानेके लिये नैवेद्य निवेदन, हवन, नमस्कार आदि करना चाहिये। ग्रहाँका अनादर नहीं करना चाहिये पूजित होनेपर ये शान्ति प्रदान करते हैं।

जन्म कुंडली कैसे देखें:https://askkpastro.com/%e0%a4%9c%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%ae-%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%96%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%81/

यह कहकर ब्रह्माजी सभी देवताओंके साथ अपने परमधामको चले गये और पिप्पलादमुनिने भी ब्रह्माजीके आज्ञानुसार शनैश्चरको उनके स्थानपर प्रतिष्ठित कर दिया।

जो व्यक्ति इस शनैश्चरोपाख्यानको भक्तिपूर्वक सुनता है तथा शनिकी लौह-प्रतिमा बनाकर तेलसे भरे हुए लौह-कलशमें रखकर ब्राह्मणको दक्षिणासहित दान देता है, उसको कभी भी शनिकी पीड़ा नहीं होती [ भविष्यपुराण ]

(3) राजा नल और शनिदेव

नल निषध देशके राजा थे, विदर्भ देशके राजा भीष्मककी कन्या दमयन्ती उनकी महारानी थी। पुण्यश्लोक महाराज नल सत्यके प्रेमी थे, अतः कलियुग उनसे स्वाभाविक द्वेष करता था। कलिकी कुचालसे राजा नल द्यूतक्रीड़ामें अपना सम्पूर्ण राज्य और ऐश्वर्य हार गये तथा महारानी दमयन्तीके साथ वन-वन भटकने लगे।

राजा नलने अपनी इस दुर्दशासे मुक्तिके लिये शनिदेवसे प्रार्थना की।

राज्य नष्ट हुए राजा नलको शनिदेवने स्वप्नमें अपने एक प्रार्थना मन्त्रका उपदेश दिया था। उसी नाम स्तुतिसे उन्हें पुनः राज्य उपलब्ध हुआ था। सर्वकामप्रद वह स्तुति इस प्रकार है-

क्रोडं नीलाञ्जनप्रख्यं नीलवर्णसमस्त्रजम् ।
छायामार्तण्डसम्भूतं नमस्यामि शनैश्चरम् ॥ नमोऽर्कपुत्राय शनैश्चराय नीहारवर्णाञ्जनमेचकाय ।
श्रुत्वा रहस्यं भव कामदश्च फलप्रदो मे भव सूर्यपुत्र ।।
नमोऽस्तु प्रेतराजाय कृष्णदेहाय वै नमः ।
शनैश्चराय कूराय शुद्धबुद्धिप्रदायिने ।।
य एभिर्नामभिः स्तौति तस्य तुष्टो भवाम्यहम्।
मदीयं तु भयं तस्य स्वप्नेऽपि न भविष्यति ॥
(भविष्यपुo उत्तरपर्व 114 । 39-42)

अर्थात् क्रूर, नील अंजनके समान आभावाले, नीलवर्णकी माला धारण करनेवाले, छाया और सूर्यसे उत्पन्न शनिदेवको मैं नमस्कार करता हूँ। जिनका धूम्र और नील अंजनके समान वर्ण है. ऐसे अर्क (सूर्य) पुत्र शनैश्चर के लिये नमस्कार है। इस रहस्य (प्रार्थना) को सुनकर हे सूर्यपुत्र! मेरी कामना पूर्ण करनेवाले और फल प्रदान करनेवाले हों।

प्रेतराजके लिये नमस्कार है, कृष्ण वर्णके शरीरवालेके लिये नमस्कार है: क्रूर, शुद्ध बुद्धि प्रदान करनेवाले शनैश्चरके लिये नमस्कार हो। [ इस स्तुतिको सुनकर शनिदेवने कहा-] जो मेरी इन नामों से स्तुति करता है, मैं उससे सन्तुष्ट होता हूँ। उसको मुझसे स्वप्नमें भी भय नहीं होगा। [भविष्यपुराण]

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(4) भक्तवर हनुमान् और शनि देव 

एक बारकी बात है। भक्तराज हनुमान् रामसेतुके समीप ध्यान में अपने परम प्रभु श्रीरामकी भुवनमोहिनी झाँकीका दर्शन करते हुए आनन्दविह्वल थे। ध्यानावस्थित आंजनेयको बाह्य जगत्की स्मृति भी न थी।

उसी समय सूर्यपुत्र शनि समुद्रतटपर टहल रहे थे। उन्हें अपनी शक्ति एवं पराक्रमका अत्यधिक अहंकार था। वे मन-ही-मन सोच रहे थे-‘मुझमें अतुलनीय शक्ति है। सृष्टिमें मेरी समता करनेवाला कोई नहीं है।”

इस प्रकार विचार करते हुए शनिको दृष्टि ध्यानमग्न श्रीरामभक्त हनुमान् पर पड़ी। उन्होंने बज्रांग महावीरको पराजित करने का निश्चय किया। युद्धका निश्चयकर शनि आंजनेयके समीप पहुंचे। उस समय सूर्यदेवकी तीक्ष्णतम किरणों में शनिका रंग अत्यधिक काला हो गया था। भीषणतम आकृति थी उनकी

पवनकुमार के समीप पहुँचकर अतिशय उदण्डताका परिचय देते हुए शानिने अत्यन्त कर्कश स्वरमें कहा- बंदर मैं प्रख्यात शक्तिशाली शनि तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हूँ और तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। तुम पाखंड त्यागकर खड़े हो जाओ।”

तिरस्कार करने वाली अत्यन्त कटुवाणी सुनते ही भक्तराज हनुमान्ने अपने नेत्र खोले और बड़ी ही शालीनता एवं शान्तिसे पूछा-‘महाराज आप कौन और यहाँ पधारनेका आपका उद्देश्य क्या है?”

शनिने अहंकारपूर्वक उत्तर दिया- ‘मैं परम सूर्यका परम पराक्रमी पुत्र शनि हूँ। जगत् मेरा नाम सुनते ही काँप उठता है। मैंने तुम्हारे बल-पौरुषकी कितनी ही गाथाएँ सुनी हैं। इसलिये मैं तुम्हारी शक्तिकी परीक्षा करना चाहता हूँ। सावधान हो जाओ, मैं तुम्हारी राशिपर आ रहा हूँ।’

अंजनानन्दनने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहा ‘शनिदेव। मैं वृद्ध हो गया हूँ और अपने प्रभुका ध्यान कर रहा हूँ। इसमें व्यवधान मत डालिये कृपापूर्वक अन्यत्र चले जाइये।’

मदमत्त शनिने सगर्व कहा-‘मैं कहीं जाकर लौटना नहीं जानता और जहाँ जाता हूँ, वहाँ अपना प्राबल्य और प्राधान्य तो स्थापित ही कर देता हूँ।’

कपि श्रेष्ठने शनिदेवसे बार-बार प्रार्थना की ‘महात्मन्! मैं वृद्ध हो गया हूँ। युद्ध करनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। मुझे अपने भगवान् श्रीरामका स्मरण करने दीजिये। आप यहाँसे जाकर किसी और वीरको ढूँढ़ लीजिये। मेरे भजन-ध्यानमें विघ्न उपस्थित मत कीजिये।’

‘कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती।’ अत्यन्त उद्धत शनिने मल्लविद्याके परमाराध्य वज्रांग हनुमानको अवमाननाके साथ व्यंग्यपूर्वक तीक्ष्णस्वरमें कहा ‘तुम्हारी स्थिति देखकर मेरे मनमें करुणाका संचार हो रहा है, किंतु मैं तुमसे युद्ध अवश्य करूंगा।’

इतना ही नहीं, शनिने दुष्टग्रहनिहन्ता महावीरका हाथ पकड़ लिया और उन्हें युद्धके लिये ललकारने लगे। हनुमान्ने झटककर अपना हाथ छुड़ा लिया। युद्धलोलुप शनि पुनः भक्तवर हनुमानका हाथ पकड़कर उन्हें युद्ध के लिये खींचने लगे।

‘आप नहीं मानेंगे।’ धीरे-से कहते हुए पिशाचग्रह घातक कपिवरने अपनी पूछ बढ़ाकर शनिको उसमें लपेटना प्रारम्भ किया। कुछ ही क्षणों में अविनीत सूर्यपुत्र क्रोधसंरक्तलोचन समीरात्मजकी सुदृढ़ पुच्छमें आकण्ठ आबद्ध हो गये। उनका अहंकार, उनकी शक्ति एवं उनका पराक्रम व्यर्थ सिद्ध हुआ। वे सर्वथा अवश, असहाय और निरुपाय होकर दृढ़तम बन्धनकी पीड़ासे छटपटा रहे थे ।

‘अब रामसेतुकी परिक्रमाका समय हो गया ।’ अंजनानन्दन उठे और दौड़ते हुए सेतुकी प्रदक्षिणा करने लगे। शनिदेवकी सम्पूर्ण शक्तिसे भी उनका बन्धन शिथिल न हो सका। भक्तराज हनुमान्‌के दौड़नेसे उनकी विशाल पूँछ वानर – भालुओंद्वारा रखे गये शिलाखण्डोंपर गिरती जा रही थी । वीरवर हनुमान् दौड़ते हुए जान बूझकर भी अपनी पूँछ शिलाखण्डोंपर पटक देते थे।

शनिकी बड़ी अद्भुत एवं दयनीय दशा थी । शिलाखण्डोंपर पटके जानेसे उनका शरीर रक्तसे लथपथ हो गया। उनकी पीड़ाकी सीमा नहीं थी और उग्रवेग हनुमान्की परिक्रमामें कहीं विराम नहीं दीख रहा था । तब शनि अत्यन्त कातर स्वरमें प्रार्थना करने लगे ‘करुणामय भक्तराज ! मुझपर कृपा कीजिये । अपनी उद्दण्डताका दण्ड मैं पा गया। आप मुझे मुक्त कीजिये । मेरे प्राण छोड़ दीजिये।’

दयामूर्ति हनुमान् खड़े हुए। शनिका अंग-प्रत्यंग लहूलुहान हो गया था। असह्य पीड़ा हो रही थी, उनकी रग-रगमें। विनीतात्मा समीरात्मजने शनिसे कहा – ‘यदि तुम मेरे भक्तकी राशिपर कभी न जानेका वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ और यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दण्ड प्रदान करूँगा।’

‘सुरवन्दित वीरवर ! निश्चय ही मैं आपके भक्तकी राशिपर कभी नहीं जाऊँगा।’ पीड़ासे छटपटाते हुए शनिने अत्यन्त आतुरतासे प्रार्थना की- ‘आप कृपापूर्वक मुझे शीघ्र बन्धनमुक्त कर दीजिये । ‘

शरणागतवत्सल भक्तप्रवर हनुमान्ने शनिको छोड़ दिया। शनिने अपना शरीर सहलाते हुए गर्वापहारी मारुतात्मजके चरणों में सादर प्रणाम किया और वे चोटकी असह्य पीड़ासे व्याकुल होकर अपनी देहपर लगानेके लिये तेल माँगने लगे। उन्हें जो तेल प्रदान करता है, उसे वे सन्तुष्ट होकर आशिष देते हैं। कहते हैं, इसी कारण अब भी शनिदेवको तेल चढ़ाया जाता है।